पता नहीं कहाँ , क्या है , कि...exams शुरू होते ही ज़ोरों से हवा बहने लगती है ! monsoon सेमेस्टर में अप्रैल है ही खिझाने के लिए , विंटर सेमेस्टर का नवम्बर भी सठियाया है ..गलन तो गलन ,दूसरी , हवा का इस तरह हहरना उफ़ ! मन एक ख़ास किस्म का द्रोह-भाव महसूस करता है और साथ ही बार बार हार मानने वाली पस्ती का भी ...यहाँ तक कि संवेदनाएँ आर्द्र नहीं रह गयीं हैं ...उनमें भी खुश्की...हद !! रोऊँ..? ...आँसू भी गीले नहीं अब ....वे भी वाष्प बनकर निकलते हैं . हाँ , मै रो ही तो रहा हूँ . मेरी बरोनियों पर अश्रु-वाष्प निलंबित हैं ...और मन ? उस पर आसुओं की एक साबुनी-फ़िल्म कि तह चढ़ी हुई है . साबुन....पागलों सा 'झूर' !! और जाड़े कि धूप?...जब तक लगती है , एक अवरोही सुख देती है ...पर ज्यों ही छाँह छूती है , एक आरोही पीड़ा होती है ...धूप ..छांह ..आना ...जाना ...
जैसे कि नाता ..
नाते के बनने और टूट जाने के बीच एक अदद आदमी कैसे मारा जाता है न ?...च्च..!! नाता ....टूटने का विराट आयोजन ....
ये सर्दी भी न !!!
पीड़ा और सुख आ आरोह अवरोह तो ठीक है लेकिन आरोही पीड़ा और अवरोही सुख हो जाय तो बात थोड़ी कठिन हो जाती है जैसा की ..."च्च..!! नाता .." यहाँ से पता चल रहा है .....लेकिन ठीक ही है यदि बात यहाँ आकर रुके ...."टूटने का विराट आयोजन " !!!!!!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंनहीं भाई ....आरोह - अवरोह का सन्दर्भ सिर्फ़ 'जाड़े की धूप' से बावस्ता है .....नाते से नहीं
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