शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

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ज़मीं के इस कूबड़ पर
जिसे पहाड़ कहा था मैंने
अभी---मैं एक तिल हूँ--
तिल भर
गोरा-सा काले पहाड़ पर


इस तिल में एक दुनिया होगी
पहाड़ का भार होगा
होगा अभयारण्य कि विचरें
जिनका मन करे --
कौन सोच पाया था ?


वे मुनीरका के मकान..
मकान पर मकान.. 
उनमे कितने सारे तिल !
दुनिया कितनी बार..
अभयारण्य कितने..
कितने भार..!


वह एक जहाज़ 
जिसे मैं चातक-सा
दौड़ाता हूँ कि पकड़ लूँ ,
मुझे देखता भी होगा?


लगता नहीं
पर हूँ तो   मैं .
जहाज़ में के तिलों से
बहुत नीचे ,बहुत पीछे  
अदृश्य - प्राय    मैं .


कितनी कथाएँ कहने से रह गयीं ..
कितनी व्यथाएं..ओह !
मेरी देह से झरकर
वे सिंच जातीं!
इस कूबड़ में
सब कि सब  कि होने लगता
संलयन ज़रा ..
फूटता कभी काले लावे-सा!


काला लावा ..
काला तिल ..
काले पहाड़ पर जो फ़िलवक्त
कूबड़ है .


काला तिल    जो  उस गुज़रते जहाज़ को
गुज़रा हुआ मैं हूँ ..
कही गयी कथा हूँ..
व्यथा हूँ ..

1 टिप्पणी:

  1. AND THIS CALLED ABHIVYAKTI.............
    THE MOST POWERFUL WEAPON OF WORLD...............
    KAVYA..............
    OH MY DEAR..............
    I LIKE ..............

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