भारतेंदु हरिश्चंद्र,प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट की हिंदी आलोचना में प्रस्तुति
भारतेंदु-मिश्र -भट्ट नवजागरणकालीन साहित्य की वृहत्रयी कहे जाते हैं . अपने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के द्वारा इन तीन बड़े साहित्यकारों ने हिंदी भाषा और साहित्य को बहुत समृद्ध किया है . १९ वीं सदी के उत्तरार्द्ध को साहित्यिक सन्दर्भों में 'भारतेंदु युग' कहा गया . मिश्र-भट्ट के पत्रकार-कर्म की तुलना एडीसन-स्टील की पत्रकार जोड़ी से की गयी . इन तीन बड़े लेखकों के महत्त्व का अंदाज़ा इन बातों से लग जाता है.
बदलते समय के साथ-साथ इतिहास स्वयं को पुनर्परिभाषित करता रहता है . उन्नीसवीं सदी के नवजागरण की व्याख्याएँ भी अलग-अलग काल के इतिहासकरों और विचारकों ने अलग-अलग ढंग से की है . हिंदी आलोचना में उपर्युक्त तीन साहित्यकारों की प्रस्तुति में नवजागरण के प्रति आलोचकों के नज़रिये की भूमिका निर्णायक रही है .
हिंदी आलोचना का भारतेंदु के साथ रिश्ता सबसे ज़्यादा दिलचस्प है. कहीं तो वे युगनायक के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं और कहीं 'इतिहास के खलनायक' के रूप में. व्यक्तित्व के मूल्यांकन अथवा साहित्य-परंपरा में महत्त्व के निर्धारण में ऐसा द्वि -ध्रुवीय व्यतिक्रम शायद ही किसी दूसरे लेखक के सम्बन्ध में देखा गया हो. प्रतापनारायण मिश्र तो जैसे भारतेंदु की ही छाया थे . हिंदी आलोचना ने मिश्र को भारतेंदु से अलग करके नहीं देखा है .यह भी एक तथ्य है कि बालकृष्ण भट्ट के लेखन का महत्त्व शुरू से ही भारतेंदु के अधिनायकत्व के नीचे दबा रहा.
'हिंदी नवरत्न' में मिश्र -बंधु लिखते हैं -" आप (भारतेंदु ) आप ही ने हिंदी में धार्मिक के स्थान पर देश- भाव , जातीयता का भारी प्रचार किया. आप के जीवन और साहित्य का सबसे बड़ा प्रभाव देश और हिंदी साहित्य में जातीयता का वर्धन था."(1)
आचार्य शुक्ल ने भारतेंदु को 'वर्तमान हिंदी गद्य का प्रवर्तक' कहा हैं . उनके अभिमत से भारतेंदु का प्रभाव 'भाषा और साहित्य दोनों पर' बड़ा गहरा पड़ा . 'जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था उसे भारतेंदु ने दूर किया .' भाषा को उन्होंने चलता ,मधुर और स्वच्छ रूप ' दिया . हिंदी को नयी चाल में ढालने का श्रेय भारतेंदु को जाता हैं . वे 'हरिश्चंद्री हिंदी' को ही 'प्रकृत हिंदी' या असली हिंदी मानते हैं. वे कहते हैं कि ' हिंदी भाषी जनता को गद्य के लिए खड़ी बोली का प्रकृत साहित्य रूप भारतेंदु की भाषा शैली में मिला.
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भारतेंदु को राष्ट्रीयता के वाहक के रूप में ही देखा है. आचार्य शुक्ल के मत के अनुरूप ही वे मानते हैं कि भारतेंदु ने काव्य (साहित्य) को लोक जीवन के आमने- सामने खड़ा कर दिया. उसे रीतिकालीन दरबारीपन से मुक्त किया. भारतेंदु कि प्रेरणा से ही हिंदी जनभाषा बनी .आचार्य द्विवेदी ने एक महत्वपूर्ण बात यह कही है कि भारतेंदु कि वैष्णवता जिसे कुछ आलोचक एंटी प्रोग्रेसिव मानते हैं , वस्तुतः रीतिकालीन साहित्यिक अनैतिकता के विरोध में थी .
डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी कि जातीय परंपरा के प्रमुख स्तम्भ के तौर पर हरिश्चंद्र को रेखांकित करते हैं . डॉ. शर्मा जब लिखते हैं कि ' जनता ने हरिश्चंद्र को भारतेंदु बनाया ' तब उनका अभिप्राय यह होता है कि वे जनता के लेखक थे . उनकी नज़र में भारतेंदु ऐसे लेखक थे जिन्होंने आधुनिक हिंदी कि बहुत मजबूत नींव डालकर उस पर जन साहित्य का एक सुन्दर भवन निर्मित किया,' डॉ. शर्मा के मुताबिक भारतेंदु स्वदेशी आन्दोलन के ही अग्रदूत न थे, वे समाज सुधारकों में भी प्रमुख थे. इस प्रकार वे भारतेंदु को आधुनिक चेतना से संपन्न राष्ट्रप्रेमी के रूप में पेश करते हैं . भारत के जातीय जनजीवन से हरिश्चन्द्र की सन्नद्धता का प्रमाण देने के लिए डॉ. शर्मा उनके बलिया व्याख्यान का जिक्र करते हैं , जिसमें 'हिन्दू' के अंतर्गत उन्होंने भारत कि समस्त जनता को समेट लिया है .जिस प्रकार डा.शर्मा हिंदी आन्दोलन को साम्प्रदायिक माने जाने से सख्त विरोध जताते हैं ,उसी प्रकार डा. रामस्वरुप चतुर्वेदी लिखते हैं कि भारतेंदु युग का जागरण हिन्दू पुनरुत्थान नहीं है . इसके प्रमाण में वे भी बलिया-व्याख्यान के उसी अंश को उद्धृत करते हैं जिसमे हिन्दुस्तान में रहने वाले हर व्यक्ति को भारतेंदु हिन्दू कहते हैं .डा. चतुर्वेदी ने भारतेंदु को राष्ट्र की धर्म-निरपेक्ष परिकल्पना करने वाला लेखक घोषित किया है . ध्यातव्य है कि डा. चतुर्वेदी भारतेंदु युगीन अंतर्विरोधों से अनवगत नहीं हैं --"भारतेंदु के व्यक्तित्व में संस्कार और विचार,राजभक्ति तथा राष्ट्रभक्ति , ब्रज भाषा और खड़ी बोली के बीच निरंतर द्वंद्व चलता रहता है ;यद्यपि इस द्वंद्व में उनका सजग प्रयत्नपूर्वक झुकाव विचार,राष्ट्रभक्ति और खड़ी बोली के प्रति रहा."(2)
डा. बच्चन सिंह का दृष्टिकोण भी कमोबेश यही है .भारतेंदु को वे अंतर्विरोधों का पुंज कहते हैं . वे स्वीकार करते हैं कि मुस्लिम साम्राज्यवाद के विरोधी थे . लेकिन उन्हें साम्प्रदायिक वे किसी सूरत में नहीं मानते .इसके प्रमाण में डा. बच्चन सिंह भी बलिया-व्याख्यान का ही ज़िक्र करते हैं .
धीरे - धीरे जब नवजागरण के प्रति बौद्धिक - वर्ग का दृष्टिकोण बदलने लगा , तब भारतेंदु की भूमिका को नए सिरे से परखा जाने लगा . उन्हें साम्प्रदायिक , धार्मिक रूढ़िवादी एवं हिंदी भाषा के सहज विकास में बाधा डालने वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाने लगा .
प्रतापनारायण मिश्र भारतेंदु युग के दूसरे महत्त्वपूर्ण लेखक समझे जाते हैं . इनके निबंधकार - पत्रकार व्यक्तित्व को काफ़ी सराहा गया . 'मिश्रबंधु - विनोद ' में लिखा है -"हिंदी पर इनका विशेष प्रेम था और जातीयता तो इनमें कूट - कूट कर भरी थी ."(३)
श्यामसुंदर दास ने प्रतापनारायण मिश्र को भट्ट से अधिक सफल निबंधकार माना है. उनके विचार से प्रताप का परिहास विशुद्ध है,जबकि भट्ट का आक्रोशग्रस्त.(आधुनिक सन्दर्भ में भट्ट का आक्रोश ही ज्यादा अच्छा समझा जाता !).उन्होंने मिश्र कि तुलना अंग्रेज़ी के महान निबंधकार चार्ल्स लैम्ब से की .
बालमुकुन्द गुप्त के अनुसार ' मिश्र में बहुत - सी बातें भारतेंदु की - सी थीं . जिस गुण में वे कितनी ही बार उनके बराबर हो जाया करते थे , वह उनकी काव्यत्व शक्ति और सुन्दर भाषा लिखने की शैली थी .'
आचार्य शुक्ल ने मिश्र की विनोदशीलता एवं मुहावरों - कहावतों के सजग प्रयोग के लिए सराहा है . वे उनके पत्रकार व्यक्तित्व को ज़्यादा महत्त्व देते हैं और मिश्र - भट्ट के पत्रकार - युग्म की तुलना एडीसन-स्टील से करते हैं .
मिश्र की विशिष्ट निबंध शैली काफ़ी प्रशंसित हुई.पाठक के प्रति वे इतने अनौपचारिक रहते हैं कि लगता है सामने बैठकर बात कर रहे हैं . निजीपन और आत्मीयता उनमे इतनी ज़्यादा है और वे इतने अधिक colloquial हैं कि उनका सफल अनुवाद एक चुनौती है . डा. रामविलास शर्मा मिश्र की इन्हीं विशेषताओं की चर्चा करते हैं उनके प्रसिद्ध पत्र ब्रह्मण में तद्युगीन अन्य पत्रों के विपरीत बौद्धिक - विमर्शों वाले निबन्धों से ज़्यादा मनोरंजन- प्रधान निबंध छपा करते थे .मिश्र के विनोदशील व्यक्तित्त्व के प्रभाव से निबंधों को रागयुक्त अभिव्यंजना में विशेष उत्कर्ष हासिल हुआ . मिश्रा की वैचारिकी उनकी हास्य - शैली में घुली हुई है . उनके निबंध सामाजिक मुद्दों से बेपरवाह केवल मनोरंजन की ख़ातिरनहीं लिखे गए होते थे .
बालकृष्ण भट्ट नवजागरण कालीन बौद्धिकों में शामिल किये जाने योग्य एक युग चेता रचनाकार हैं . इनके पत्र हिंदी प्रदीप को हिंदी का 'spectator ' कहा जाता है .आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में भट्ट की लेखन - शैली पर दो - चार वाक्य लिख देने के अलावा और कुछ नहीं किया.सामयिक घटनाओं पर उनके द्वारा लिखे गए निबंधों एवं उनके दूरंदेश निष्कर्षों के सम्बन्ध में शुक्ल ने कोई संकेत नहीं किया . भट्ट का रचनाकार व्यक्तित्व आज तक उपेक्षित है . उनकी कोई ग्रंथावली तक प्रकाशित नहीं हो सकी है . भट्ट हिंदी में व्यावहारिक आलोचना के जन्मदाता हैं . डा. राम विलास शर्मा उनकी प्रतिभा को उनकी अध्ययनशील विद्वता एवं आलोचकीय दृष्टि में निहित मानते हैं . साहित्य को जनसमूह के ह्रदय का विकास कहना उनकी आधुनिक जनतांत्रिक दृष्टि का प्रमाण है .
साम्राज्यवादी शोषण नीति के विरुद्ध भारतेंदु और मिश्र ने अपनी सृजनात्मक क्षमता को हथियार बनाया . पर उसके ख़िलाफ़ शुद्ध बौद्धिक स्तर पर विद्रोह भट्ट ने ही किया . भट्ट में तर्क के सहारे बात रखने का कौशल अधिक था . एक आधुनिक चिन्तक के स्तर से उन्होंने हिन्दुस्तान की तमाम सामाजिक रूढ़ियों एवं जड़ परम्पराओं की तार्किक आलोचना की. कांग्रेस की स्थापना के पहले ही उन्होंने जातीयता ( nationality ) की बात कही .जातीयता के वे ज़बरदस्त आग्रही भी थे . वे मानते थे कि यदि भारत अपनी अंदरूनी सामाजिक बुराइयों से पिंड छुड़ा ले तो बाहरी साम्राज्यवादी शक्ति ख़ुद- ब- ख़ुद लड़ सकता है. सामाजिक रूढ़ियाँ ही देश में जातीयता की भावना नहीं आने देतीं. उनका विचार था कि हमारी अपनी सामाजिक दुर्बलताएं ही हमारे औपनिवेशिक शोषण एवं गुलामी की जड़ें हैं .
भट्ट की प्रखर बौद्धिकता उन्हें हमारे समय में ज़्यादा प्रासंगिक बनाती है. डा. शर्मा के अनुसार -- "भट्ट जी अपने गंभीर अध्ययन ,आलोचन प्रतिभा ,संयत शैली आदि गुणों के कारण भारतेंदु युग से भिन्न बहुत कुछ आज के-से लगते हैं . आज के युग में विवेचन और विश्लेषण का ज़ोर है ;भारतेंदु युग की प्रतिभा मूलतः रचनात्मक थी ."(४)
भट्ट ने भारतीय समाज की परिवर्तन - विमुखता को एक बड़ा दोष बताया था . 'चलन की गुलामी ' , 'चली सो चली ' और 'हमारे देश के पुराने ढंग वाले ' जैसे अन्य कई निबंधों में उन्होंने इस जड़ता की निंदा की है . दुर्योग से परिवर्तन - विमुखता का यह दोष हिंदी आलोचना में भी हमेशा से रहा है . स्थापित मान्यताओं में आवश्यक बदलाव होने में भी ज़रूरत से कहीं ज़्यादा समय लग जाता है . शुक्ल जी ने भारतेंदु को युग नायक घोषित कर दिया और अन्य लेखकों को 'भारतेंदु- मंडल' में समेट दिया . रामविलास शर्मा ने भारतेंदु को 'परंपरा के मूल्याङ्कन' में सौ फीसदी अंक दिये. मिश्र बंधुओं ने उससे भी पहले भारतेंदु को 'नवरत्नों ' में जगह दी . इस व्यक्ति - पूजा (डा. शर्मा के ही शब्दों में ) का यह असर हुआ कि उस समय के दूसरे कई लेखकों की पहचान दब गयी .
प्रताप और भारतेंदु के कृतित्त्व के साथ- साथ उनके व्यक्तित्त्व को आलोचकों ने जिस ज़ोर -शोर से रेखांकित किया है , उससे आलोचना में वस्तुनिष्ठ दृष्टि का अभाव झलकता है . भट्ट के उपेक्षित रह जाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि उनका सर्जनात्मक व्यक्तित्त्व वौसा बहुआयामी नहीं था , जैसा भारतेंदु और प्रताप का था . वे दोनों अपने समय के प्रतिष्ठित कवि थे और हिंदी प्रदेश का संस्कार भी कवितावादी था. यह संस्कार लम्बे समय तक बना भी रहा .
रामविलास शर्मा का यह सुझाव कि भारतेंदु युग के सभी लेखकों पर अलग - अलग पुस्तकें लिखी जानी चाहिएँ,बहुत माकूल है .हिंदी आलोचना को अपनी अधिनायकवादी मानसिकता त्याग कर लेखकों का पूर्वग्रह-रहित मूल्यांकन करना चाहिए . इस क्रम में यदि किसी बड़े उलटफेर की स्थिति आये तो उसे स्वीकार करने के लिए भी आलोचना को तैयार रहना चाहिए .
१) हिंदी साहित्य का इतिहास -खंड -१ -डा. रामप्रसाद मिश्र , नमन प्रकाशन ,२००८ से उधृत
२) पृष्ठ २२७ , हिंदी गद्य : विन्यास और विकास - डा. रामस्वरूप चतुर्वेदी ,लोकभारती ,२००६
३) उधृत , हिंदी साहित्य का इतिहास -खंड-१ -डा. रामप्रसाद मिश्र
४) पृष्ठ ९१ , भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास-परंपरा : डा. रामविलास शर्मा ,राजकमल , १९७५
अन्य सहायक-ग्रन्थ
१) हिंदी साहित्य का इतिहास : रामचन्द्र शुक्ल ,लोकभारती ,२००५
२) हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास - डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल,१९९०
३) हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास - डा. बच्चन सिंह .राधाकृष्ण .२०००
४) रस्साकशी - डा. वीरभारत तलवार , सारांश प्रकाशन ,२००६
५) परंपरा का मूल्याङ्कन - डा.- रामविलास शर्मा ,राजकमल,२००९
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