तुम्हें आकाश पाकर
पतंग यह मन
हुआ जाता है
उमग कर औ...र
तनकर
बेइन्तहां...यह
उड़ा जाता है
तुम्हें आकाश पाकर
इस ठुके मन की ;
पिटे मन की ;
अननुमानित ,
औचक
उड़ान पर
भवें बंकिम तुम्हारे भीतर के
बादल की
करुना थी
वह शमकारी ;
उस बादल से
जो बरसी थी
भीगी ...हँ,
मेहरायी...
फटी ..
गिरी ...
पतंग
मेरी ...
करुना थी वह ?
मैं सिर हिलाता
रह गया
उस किसान
की तरह
जो लगान
की मुआफ़ी
की अरज़ी
के ठुकरा दिये
जाने पर ; होंठों पर
अकाल मृत्यु की ओर दौड़ती
हँसी लिये रोता था
पतंग यह मन
हुआ जाता है
उमग कर औ...र
तनकर
बेइन्तहां...यह
उड़ा जाता है
तुम्हें आकाश पाकर
इस ठुके मन की ;
पिटे मन की ;
अननुमानित ,
औचक
उड़ान पर
भवें बंकिम तुम्हारे भीतर के
बादल की
करुना थी
वह शमकारी ;
उस बादल से
जो बरसी थी
भीगी ...हँ,
मेहरायी...
फटी ..
गिरी ...
पतंग
मेरी ...
करुना थी वह ?
मैं सिर हिलाता
रह गया
उस किसान
की तरह
जो लगान
की मुआफ़ी
की अरज़ी
के ठुकरा दिये
जाने पर ; होंठों पर
अकाल मृत्यु की ओर दौड़ती
हँसी लिये रोता था
The first paragraph is a poem by itself. I liked that paragraph more than the poem in its entirity.
जवाब देंहटाएंthanks
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