कोई रंग रहे जो
ज़िन्दगी को सराय समझे
ख़ुद चाहे ढब रखे मुसाफ़िराना.
अपनी बेबसी की सड़कों पर..
नियति के पुलों पर..
बेमतलब पगडंडियों पर..
कुत्तों सी फिरती
ज़िन्दगी
ख़ुद बने सराय गर ...
सारे मुँह लटके हैं ,सारी शामें अटकी हैं,
सुबहों में किलक नहीं ,रातें बैरागिनें हैं :
और ..ये ..दोपहरें तो ...
तुमसे रोज़ - रोज़ मिलूंगा, परम !
तो हमारी दोस्ती ढनगेगी बोर ढलानों पर .
तुमसे रोज़ - रोज़ मिलूंगा, परम !
तो मुझे चीन्हने में भी तुम्हें देर लगने लगेगी .
इसीलिए मैं ' ताप्ती ' के दर से
मुड़ जाता हूँ अक्सर
(अपनी ओर)
कि उस दर की सीढ़ियाँ
ऊंची
ही
रहें !!
न हो जाएँ ढाल कि जिस पर ढनगे
दोस्ती हमारी .
पर अपनी भी झोली में कौन सा रंग है भला !!
हालाँकि पिछली सभी होलियों में
मैंने रंग नहीं खेला .
क्या निठल्ली घड़ियों ने मुझे
कविता कि ओर धकेला है ?
या सखी सिसृक्षा ने कहा है --
'' आओ ! '' ?
और
'' रंग ढूंढ़ते नहीं जी..
बनाते हैं--
ऐ..स्से...''
क्या ज़िन्दगी के सपने बे - रंग
और चेहरा अकेला है ?
सखी सिसृक्षा का कहना है --
'' रंगों की क़तरनें
हवा में लुटाओ..
ऐ..स्से...''
और
'' कहाँ कोई अकेला है?
सराय हैं , मुसाफ़िर हैं , रंग हैं ...मानी हैं..''
मैं कहता हूँ चुप करो !
क्यों न तुम ही आ जाओ
चाहे
जै.. स्से...
ज़िन्दगी को सराय समझे
ख़ुद चाहे ढब रखे मुसाफ़िराना.
अपनी बेबसी की सड़कों पर..
नियति के पुलों पर..
बेमतलब पगडंडियों पर..
कुत्तों सी फिरती
ज़िन्दगी
ख़ुद बने सराय गर ...
सारे मुँह लटके हैं ,सारी शामें अटकी हैं,
सुबहों में किलक नहीं ,रातें बैरागिनें हैं :
और ..ये ..दोपहरें तो ...
तुमसे रोज़ - रोज़ मिलूंगा, परम !
तो हमारी दोस्ती ढनगेगी बोर ढलानों पर .
तुमसे रोज़ - रोज़ मिलूंगा, परम !
तो मुझे चीन्हने में भी तुम्हें देर लगने लगेगी .
इसीलिए मैं ' ताप्ती ' के दर से
(अपनी ओर)
कि उस दर की सीढ़ियाँ
ऊंची
न हो जाएँ ढाल कि जिस पर ढनगे
दोस्ती हमारी .
पर अपनी भी झोली में कौन सा रंग है भला !!
हालाँकि पिछली सभी होलियों में
मैंने रंग नहीं खेला .
क्या निठल्ली घड़ियों ने मुझे
कविता कि ओर धकेला है ?
या सखी सिसृक्षा ने कहा है --
और
'' रंग ढूंढ़ते नहीं जी..
बनाते हैं--
क्या ज़िन्दगी के सपने बे - रंग
और चेहरा अकेला है ?
सखी सिसृक्षा का कहना है --
'' रंगों की क़तरनें
हवा में लुटाओ..
ऐ..स्से...''
और
सराय हैं , मुसाफ़िर हैं , रंग हैं ...मानी हैं..''
मैं कहता हूँ चुप करो !
क्यों न तुम ही आ जाओ
चाहे
जै.. स्से...
बहुत सुंदर....सघनता प्रभावित करती है।
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