गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

रोकर ...

रोकर
मेरे भीतर का आकाश
निषेचित करता है
तुम्हारे भीतर की
धरा को


मेरे रुदन में
क्लीवता न देखो -
वन्ध्य न कहो
स्वयं को 

3 टिप्‍पणियां:

  1. वि‍चारणीय...अजब-सा अमूर्तन है...भाव खुलते नहीं, हमें आपको जानना होगा कवि‍वर...!!!!!!!!!!!

    जवाब देंहटाएं
  2. पढ़ा है इसे तो ! सधी हुयी अभिव्यक्ति ! कविता का गठन रोमांच पैदा करता है !

    जवाब देंहटाएं
  3. Very nice...can I post this on my website? I will put your link as well as acknowledgement.

    जवाब देंहटाएं