भारी डायाप्टर के चश्मे ..
अब तो ..
सड़के हैं गहरी .
पेड़ सूजे हुए
मुँह फुलाये लोग - बाग़
गुस्साये हुए से .
झुलस गया मैं
जल गया हूँ ,भभाता है
चेहरा
पानी की टप-टप जिस पर
नमक का भुरभुराना है
तुम्हारी बातें , दोस्त ,
सरिये - सी आर - पार
अगर हो जायें --
घबराना मत..
(मैं सह लेता हूँ ..आदत पुरानी है )
बस चल देना
चुपचाप ,
घाव न छूना ..
(मैं दोष न दूँगा)
सरिया अड़ा हो ;
रोष न करूँगा .
बस जीभ को अपनी
मुँह में घुमाऊँगा ..
(तफ़्तीश कि ..
सभी दाँत सलामत हैं ?)
गरदन नंवाये
जीभ घुमाऊँगा ;कायर न कहना
बस
वहाँ से चल देना
चुपचाप .
मैं सड़कों के गड्ढे लांघता - फाँदता
घर चला आऊँगा ...
शाम..दोस्त!
नाम तुम्हारे एक कविता लिखूँगा..
तुम्हारी पुश्तें पढ़ेंगी;कहेंगी --
'' क..वि था ''
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