ओ उज्ज्वला !
तुम्हारे नयन - सर में नेह के शैवाल
निरख उनकी झूम मेरे नयन तव - पग चूमते हैं
(२)
लाल पत्थर पर कि जैसे छींट अच्छत की
कि जैसे चाव - लहरों की लाज तट से वापसी
(३)
सिन्दूर - कन जो स्वेद में घुल
कि जैसे फूल पाटल वृष्टि में धुल
मानस - सरोवर पर नवल नव नीरदों के रूप में
बारम्बार बनती बिगड़ती है
मेरी कल्पना तब हंसिनी - सी
बनते - लुप्त होते नीरदों को ढूंढती है
तेरी छवि गहन में खो रही
मेरी कल्पना अब कह रही
'' ठीक ही ठहरी तेरी शुचि - अमिय अभिधा .....अनामिका ''
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