गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

फ़ाख्ते

शब्दों पर
ज़ोर देकर 
उन्हें दुबारा
कहकर
मैं अपनी सोच को सेता हूँ


मेरे ये
संवेदनों के
फ़ाख्ते !!




बस के
बाहर झूलते
मेरे सिर के
बालों को जैसे
हवा - माँ सहलाती है
वैसे ही
मैं इन फ़ाख्तों को
सहलाता हूँ कि
गर्म रहें , पुष्ट हों , मेरे ये
संवेदनों के
फ़ाख्ते

1 टिप्पणी: