सुनो सरगम !
तुम्हें कुछ देना ही सब पाना है
प्यार की इस दीवार पे , सरगम!
स्वार्थ की ज़रा-सी दूब
ज़रूर उग आई है:
उघाड़ कर देखो -
तुम्हें कुछ देना ही सब पाना है
अकेला हूँ !
पहले ही दुनिया में -
मेट्रो में , अस्पतालों में ,
सड़कों पर , रेस्त्रां ,
बड़े - बड़े सेमिनारों में -
हर नये दिन वे लोग मिलते हैं
जो कल नहीं मिले थे .
अब गर तुम भी ?
हँ ..
दुनिया का पिंजरा , सरगम!
बड़ा होता जायेगा
( अगर्चे वो कैद ही रहेगी )
ऐसा कि ..
आवाज़ों का कारवाँ
कभी लौट नहीं पायेगा
तुम्हें कुछ देना ही सब पाना है
प्यार की इस दीवार पे , सरगम!
स्वार्थ की ज़रा-सी दूब
ज़रूर उग आई है:
उघाड़ कर देखो -
तुम्हें कुछ देना ही सब पाना है
अकेला हूँ !
पहले ही दुनिया में -
मेट्रो में , अस्पतालों में ,
सड़कों पर , रेस्त्रां ,
बड़े - बड़े सेमिनारों में -
हर नये दिन वे लोग मिलते हैं
जो कल नहीं मिले थे .
अब गर तुम भी ?
हँ ..
दुनिया का पिंजरा , सरगम!
बड़ा होता जायेगा
( अगर्चे वो कैद ही रहेगी )
ऐसा कि ..
आवाज़ों का कारवाँ
कभी लौट नहीं पायेगा
अचानक बहुत बदल गया है शिल्प कविता का ! सज गयी है अभिव्यक्ति !शायद इसलिये कि पक गया है मन .......
जवाब देंहटाएंलेकिन कविता को कवि से न जोड़ू न ?????
जवाब देंहटाएं:) :) :)
जवाब देंहटाएंjod leejiye
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