मंगलवार, 30 नवंबर 2010

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भारी डायाप्टर के चश्मे ..


अब तो ..


सड़के हैं गहरी .






पेड़ सूजे हुए


मुँह  फुलाये लोग - बाग़


गुस्साये हुए से .






झुलस गया   मैं


जल गया हूँ ,भभाता है


चेहरा


        पानी की टप-टप जिस पर


नमक का भुरभुराना है






तुम्हारी बातें , दोस्त ,




 सरिये - सी  आर - पार


                                अगर हो जायें --






घबराना मत..




(मैं सह लेता हूँ ..आदत पुरानी है )


बस चल देना


                 चुपचाप ,




घाव न छूना ..


(मैं दोष न दूँगा)


सरिया अड़ा हो ;


रोष न करूँगा .


बस जीभ को अपनी


मुँह में घुमाऊँगा ..


(तफ़्तीश कि ..
सभी दाँत सलामत हैं ?)


                             गरदन नंवाये


जीभ घुमाऊँगा ;कायर न कहना




बस
     वहाँ से चल देना
                         चुपचाप .




मैं सड़कों के गड्ढे लांघता - फाँदता


घर चला आऊँगा ...


                           शाम..दोस्त!


नाम तुम्हारे एक कविता लिखूँगा..




          
तुम्हारी पुश्तें पढ़ेंगी;कहेंगी --
''  क..वि   था  ''