शनिवार, 29 जनवरी 2011

कैसे बोलता है कोई ,अगर सचमुच,
उसे कुछ कहना होता है ?


कैसे वह दूसरों तक लाया जाता है जो
कहना चाहा गया होता है


हम तो यूँ ही
बोलते हैं अक्सर
सच, हमें कभी ..कुछ भी ..
कहना नहीं होता है


पर
वक़्त मुसीबत
जब कहना होता है तब यही
ज़ेहन में उठता है
कि कैसे बोलता है कोई, अगर सचमुच,
उसे कुछ कहना होता है ?

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

 टच-स्टोन 

आग
जहाँ ज़िन्दगी ईंधन है
आग
है

अपने पीलेपन से कमज़ोर नहीं
उज्ज्वल दहक से पुरज़ोर नहीं

आग
आग है
जब तक
ज़िन्दगी ही ईंधन रहे --
साँसे ही जलें

शनिवार, 22 जनवरी 2011

        तुम्हारी "ना "..सरगम             

 
               (स)


तुम्हारी 'ना' सरगम !
एक सुपरसोनिक ध्वनि थी
जिसकी ज़द में सारा
जहान था    चुप

कुछ ऐसी थी उस ध्वनि  की धमक
कि सारे शोर थे चुप 

न्यूटन , मेरे यार !
मैंने भारहीनता महसूस की

मैं एक भीगे कपड़े-सा
निचोड़ा गया

दोनों पैर
किसी एक खौफ़नाक मुट्ठी में ज़ब्त
क्लौकवाईज़,
खोपड़ी दूसरी  खौफ़नाक मुट्ठी में ज़ब्त
एंटी-
क्लौकवाईज़ :
घुमायी गयी

मेरी आह
वह बूँद है
जो निचुड़ने से छूटी है
मेरी आह
एक ऊँचे नल से गिरी बूँद की
तरह गिरी
              (र)
बदन खदर गया

मोटी-मोटी गहराती लकीरें

बदन की चिप्स बन रही हों जैसे

वे लकीरें क्यारियाँ हैं
जिनमें आँसू जमा  हैं
              (ग)
मैं एक बरधा
अपने प्यार के खूँटे से बंधा..
खूँटे से कहता रहता-
"तुम यहाँ बेकार गड़े हो
उखड़ चलो
चले चलो सिवाने तक 

और
और भी.. आगे तक"

पर खूँटे की एक ही रट है -
"तुम मुझसे बेकार बंधे हो
यह मोटा रस्सा तुम
तोड़ सकते हो
तुममें बेहिसाब ताक़त है 
तुम्हारी गरदन की वह मोटी
नस मैंने देखी थी , मुझे याद है ,
तुम मुझसे बेकार बंधे हो"
                  (म)
और .. ज़िन्दगी हदबंद है

प्यार का पुटपाक
अपने दिल में दबाये
मुझे कई काम करने हैं..
कई काम... सरगम !

कल डिनर रूम पर ही मँगाया था
..टिफ़िन धुलनी है..
दो शर्ट्स हैं
जिनकी कॉलर मैलीं हैं..
..धोनी हैं..
अखबार पढ़ने हैं..

यह भीषण ठण्ड जिन बच्चों के लिए
एक चड्ढी पर ही गुज़र रही है
और जो तिलक ब्रिज के पास कहीं
अपने बदन तोड़ रहे हैं -
मुझे तमाचे जड़ रहे हैं
वे बच्चे मुझे तमाचे ...सरगम ..

और ज़िन्दगी हदबंद है

इधर तुम्हारा फ़ैसला आया
उधर बाबरी वर्डिक्ट , सरगम !

मुझे दोनों रिपोर्टें
कलमबंद करनी हैं .

 

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

 कविता.. जो असफल हुई 



कल शाम ..
देर शाम
नीम की डालों बीच
उलझे चाँद ने
मेरे संजोये
दर्द के
ताल पर उजाला किया

मैं पट जाऊँ!!

कतरा-कतरा अर्घ्य
मुझे मिल रहा है,गुपचुप..
और मैं पट रहा हूँ , चुपचाप ..

मेरी सहयोगिनी भीतों -
तुम्हें मान और प्यार!

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

सुनो सरगम !

लाखों-लाख सालों का वज़न लेकर प्यार-
लाखों-लाख टनों के आँसू लेकर प्यार -
लाखों-लाख इंसानों को पार करके प्यार -
करना -
करते रहना..

फिर निपट अकेले ही
हेल्थ-कार्ड उठाकर
वे दवाइयाँ ढूंढना
जो आज खानी हैं, और
दो - एक टेबलेट दबाकर
लाखों-लाख आगामी ज़िंदगियों
की डगर को सूनी
आँखों से तकना -
तकते रहना .. 
सुनो सरगम !


दुनिया बावली है , सरगम !
इसे बावलों के सिवा सब
बददिमाग़ नज़र आते हैं


हम कोई पाप नहीं कर रहे सरगम !
नहीं तो सोचो -
तुम्हारे और मेरे
दो अलहदा रास्ते
क्यों एक नज़र आते हैं !!


तेरी नियति से मेरी नियति
जुड़ गयी है , रे पगली !
"ये प्यार है"-
प्यार करने वाले कह जाते हैं ..
 सुनो सरगम !

तुम्हें कुछ देना ही सब पाना है


प्यार की इस दीवार पे , सरगम!
स्वार्थ की ज़रा-सी दूब
ज़रूर उग आई है:
उघाड़ कर देखो -


तुम्हें कुछ देना ही सब पाना है


अकेला हूँ !


पहले ही दुनिया में -
मेट्रो में , अस्पतालों में ,
सड़कों पर , रेस्त्रां ,
बड़े - बड़े सेमिनारों में -
हर नये दिन वे लोग मिलते हैं
जो कल नहीं मिले थे .


अब गर तुम भी ?
हँ ..
दुनिया का पिंजरा , सरगम!
बड़ा होता जायेगा
( अगर्चे वो कैद ही रहेगी )
ऐसा कि ..
आवाज़ों का कारवाँ
कभी लौट नहीं पायेगा

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

एक बेईमान कवि की रचना - प्रक्रिया

चलूँ , एक  कविता बनाऊँ !
कब तक ताकूँ राह 
भाव - तरंगों की !
सामने का उथला
भाव - सरोवर 
तरंगायित नहीं तो क्या ?
चलूँ , इसी में कूद पडूँ!


बेचैन नहीं दिल आज ; यही बेचैनी है 
उफ़ क्या चीज़ है कविता भी !?..
छोड़ती नहीं 
बेतकल्लुफ़ कभी 


मैं कूद पड़ा
इस उथले भाव - सरोवर में
नीचे निकट की सतह में
तलवों ने मेरे चिन्ह दिये 


कुछ आगे बढूँ ?


कोशिश में क्या हर्ज़ है ?
कविताई भी 
अजीब मर्ज़ है !!


आगे चार क़दम की चाल -
डूबने का डर 
कर गया बेहाल 


वहाँ और आगे-
गहराइयों में झिलमिलाती
खोती जाती 
सतह ललकारती 
करती 
है सवाल 


उत्तर भी देती है 
( पर, बिखरे चित्रों में  )


वे चित्र बड़े ही अस्त - व्यस्त 
बेढब हैं !


फहरने लगता है आगे का 
जल - तल वितान 
बुनावट सतह की बदलती है पल - छिन


चित्र वे ही 
वे अस्त - व्यस्त 
और वे बेढब 
जुड़ते हैं ...सजते हैं 


उभरता है -
चित्र -
सुपरिभाषित 

सतह पर बने उस चित्र से फिर गूँजा-
ललकार भरा आमंत्रण !


पर आगे गहराइयों में 
उतरने का साहस नहीं 
पलट कर देखा भीटे पर 
खड़ा है मुस्कराता कोई 
आत्म-प्रवंचना की हँसी 
संवाद कर गयी  
कि ....


'' नहाने आया था भई 
लौट चलूँ , शायद ,
कोई कविता भी बन गयी ''
 

बुधवार, 5 जनवरी 2011

पानी का पुल

एक रोज़ जब सुबह हुई
तो जैसे रात दूर न थी
और भान हुआ कि
जब रात आएगी तो
सुबह बहुत दूर होगी


दिन से रात जैसे सट-सी गयी है
कोई फासला नहीं ..
दिन छूट जाता है
निष्प्रयास !
निःश्वास - सा


पर , एक पानी का पुल है --
पानी का पुल
कि रात छोड़ दिन पर जायें , जा ठहरें ..


ठहरना तो सपना है


हकीकत है बहना


पानी के पुल पर पाँव धँसते हैं
पुल टूटता नहीं --
फट जाता है .
चित्त
फट जाता है .


पैरों से मेरे
पानी झरता है


दिन इतनी दू...र
क्यों है माँ ?


 आज तुम्हारे पास सो जाऊँ ?