गुरुवार, 6 जनवरी 2011

एक बेईमान कवि की रचना - प्रक्रिया

चलूँ , एक  कविता बनाऊँ !
कब तक ताकूँ राह 
भाव - तरंगों की !
सामने का उथला
भाव - सरोवर 
तरंगायित नहीं तो क्या ?
चलूँ , इसी में कूद पडूँ!


बेचैन नहीं दिल आज ; यही बेचैनी है 
उफ़ क्या चीज़ है कविता भी !?..
छोड़ती नहीं 
बेतकल्लुफ़ कभी 


मैं कूद पड़ा
इस उथले भाव - सरोवर में
नीचे निकट की सतह में
तलवों ने मेरे चिन्ह दिये 


कुछ आगे बढूँ ?


कोशिश में क्या हर्ज़ है ?
कविताई भी 
अजीब मर्ज़ है !!


आगे चार क़दम की चाल -
डूबने का डर 
कर गया बेहाल 


वहाँ और आगे-
गहराइयों में झिलमिलाती
खोती जाती 
सतह ललकारती 
करती 
है सवाल 


उत्तर भी देती है 
( पर, बिखरे चित्रों में  )


वे चित्र बड़े ही अस्त - व्यस्त 
बेढब हैं !


फहरने लगता है आगे का 
जल - तल वितान 
बुनावट सतह की बदलती है पल - छिन


चित्र वे ही 
वे अस्त - व्यस्त 
और वे बेढब 
जुड़ते हैं ...सजते हैं 


उभरता है -
चित्र -
सुपरिभाषित 

सतह पर बने उस चित्र से फिर गूँजा-
ललकार भरा आमंत्रण !


पर आगे गहराइयों में 
उतरने का साहस नहीं 
पलट कर देखा भीटे पर 
खड़ा है मुस्कराता कोई 
आत्म-प्रवंचना की हँसी 
संवाद कर गयी  
कि ....


'' नहाने आया था भई 
लौट चलूँ , शायद ,
कोई कविता भी बन गयी ''