रविवार, 19 दिसंबर 2010

भीगी पतंग

तुम्हें आकाश पाकर
पतंग यह मन
हुआ जाता है  
उमग कर औ...र
तनकर
बेइन्तहां...यह
उड़ा जाता है
तुम्हें आकाश पाकर




इस ठुके मन की ;
पिटे मन की ;
अननुमानित ,
औचक
उड़ान पर


भवें बंकिम तुम्हारे भीतर के
बादल की


करुना थी
वह शमकारी ;
उस बादल से
जो बरसी थी


भीगी ...हँ,
मेहरायी...
फटी ..
गिरी ...
पतंग
मेरी ...


करुना थी वह ?
मैं  सिर हिलाता
रह गया
उस किसान
की तरह
जो लगान
की मुआफ़ी
की अरज़ी
के ठुकरा दिये
जाने पर ; होंठों पर
अकाल मृत्यु की ओर दौड़ती
हँसी लिये रोता था

सुलझा दी..

छूकर तुम्हारी याद ने


गाँठ


अर्थहीनता की


झट से


सुलझा दी ...