बुधवार, 23 मार्च 2011

सुनो सरगम !

क्या यही दुःख है मुझे कि मैंने खो दिया है तुम्हें ?
ना ...मन दूरी से क्यों घबराये भला !
मन घबराता है कि अब जब
दुबारा कोई सपना पालूँगा
तो चाह कर भी आँख नहीं मूँद पाऊँगा-
खुली आँखों से सपना ..ओह !


दिमाग़-
दुनियादारी के दर्द की सबसे बड़ी वजह -
बरसों से सोया था .
यार तुमने जगाया, देखो.
'जागै अरु रोवै '


घबराहट इसी बात की यार
 कि प्यार की छाछ भी
फूँक कर पीनी होगी


एक अच्छा ख़ासा चौरस मैदान
कैसे एक पतली - सी रस्सी हुआ,भला !
और मैं नट.


तुम्हारी याद सबक बन गयी
दुःख इसी बात का है
यही सच है
तुम्हारी याद इस नट के हाथ
बहुत भारी लट्ठ है


एक तुम ही तो मांद थी
जिसमें यह गीदड़ बड़े शेर - सा सोता था
अब तो कान हर बात पर खड़े हैं
...कि मैं श्वान-ध्यान


'मादकता-से आये थे
संज्ञा-से चले गये हो ' 


चौकीदारी की अब मेरी पाली, कबीर!
तुम जाओ
आँसू अब मेरा सदन , शंकर !
तुम जाओ


इस शहर के एक भीषण चौरस्ते पे
मैं एकाकी मलिन चेहरा लिए
उकडूँ बैठा
कोहनियाँ घुटनों पे टिकाए
हथेलियों में सिर दबाए
सड़क को गुमसुम तकता


मुझे पहचानना ... सरगम !




    







2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और सार्थक सृजन, बधाई.

    कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर पधारें , अपनी प्रतिक्रिया दें , आभारी होऊंगा .

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